राजेश 'राज' - कन्नौज (उत्तर प्रदेश)
या जाने दें - कविता - राजेश 'राज'
सोमवार, फ़रवरी 03, 2025
सवाल तुम्हारे सुनें या
अनसुने ही जाने दें
सवालों में ही घुले जवाब
ढूँढे़ या अनुत्तरित जाने दें
मैं एक कशमकश में हूँ
कि सवालों और जवाबों की
रस्म तोड़ दूँ या जाने दें।
अभी जो सपने संचित हैं
हमारे दृगों के पटल पर
अभी उनके रूप रंग गंध
को स्पर्श करने का समय है
अभी उनका विश्लेषण कर
हर्ष मनाने का समय है
सोचता इन सब में ढलूँ
या वक्त के कंधों पर
भार लिए जाने दें।
तुम्हारे प्यार भरे संदेश
फ़ोन में जो सहेज रखे हैं
समय-समय पर जिन्हें पढ़ता हूँ मैं
डर है कि डिलीट ना हो जाएँ
तो दिल के लिफ़ाफ़े में
सुरक्षित रखना चाहता हूँ
क्योंकि दिल में बसे संदेश
दिल की भाषा समझते हैं
सोचता हूँ इनके लिए
कोई जतन करूँ या जाने दें।
कहने और सुनने का
जो लालित्य होता है
जो सुकुमार वन लताएँ
वृक्ष के तनों से लिपटकर
अँगड़ाई लेकर कहतीं हैं
और वृक्ष लचक-लचक कर
उनसे गुफ़्तुगू करते हैं
कहने और सुनने का
यह मृदुल शर्मीला सिलसिला
थमने दूँ या जाने दें।
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