आख़िरी मुलाक़ात - कविता - सुरेन्द्र जिन्सी
गुरुवार, मार्च 20, 2025
इस बार वो गई
मगर हर बार की तरह नहीं
हर बार चली जाती थी
मुझे पीछे छोड़कर
मैं देखता रहता था उसे
नज़रों से ओझल होने तक
एक टूटी उम्मीद लेकर
कि एक बार तो पलटेगी
देखेगी मुझको
कि मैं अब भी खड़ा हूँ!
वहीं, जहाँ कुछ देर पहले
हम दोनों खड़े थे!
मगर वो कभी नहीं मुड़ी
और आज जब वो गई
तो मैं देखता रहा आदतन इस यक़ीं के साथ
कि वो नहीं पलटेगी!
मगर,
लोगों की भीड़ के उस पार जाकर
वो अचानक मुड़ी
और मुस्कुराई
फिर हाथ हिलाकर विदा ली
शायद उसको भी पता था
ये हमारी
आख़िरी मुलाक़ात थी!
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