ग़रीबी - कविता - रवि कुमार
मंगलवार, मार्च 18, 2025
क्या गुज़रती होगी उनपर
जिनके भूखे पेट है लाल कई
आश लगाए, सड़क किनारे
तनपे है कपड़े फटे, पुराने
थामे कटोरा हाथ में
है नहीं कुछ खाने को।
ललक रहे है लाल भूख से
मिल जाए, कुछ भूख मिटाने को
भूख से हारे, मन को मारे
बैठ कोने में दाने को
होती है जब शाम तो
फुटपाथ पर जाते रात बिताने को।
तेज़ हवाएँ, आँधी बारिश
आ जाते हैं, नींद चुराने को
ठंड से ठिठुरते काँपते शरीर
है नहीं दो गज कपड़ा, तन छिपाने को
उम्मीद लगाए रोए अँखियाँ
मिल जाएँ, दो पल भी सो जाने को॥
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