सिद्धू-कान्हू: संथालों का संग्राम - कविता - प्रतीक झा 'ओप्पी'

सिद्धू-कान्हू: संथालों का संग्राम - कविता - प्रतीक झा 'ओप्पी' | Hindi Kavita - Sidhu-Kanhu Santhalon Ka Sangram. Poem on Santhal Rebellion - Sidhu Murmu and Kanhu Murmu
जब अन्याय की आँधी आई, वनवासी जब रोते थे,
शोषण की ज्वाला में जलकर, सपने उनके खोते थे।
साहूकारों के बन्धन में जब, जीवन कुम्हलाने लगा,
ज़मींदारों की लूट से वनवासी अकुलाने लगा।

तब जंगल के पत्तों ने भी, क्रान्ति के स्वर गाए,
सिद्धू-कान्हू उठे शेर सम, बनकर अंगार आए।
चाँद-भैरव संग खड़े थे, फूलो-झानो थे तैयार,
बोले– अब न सहेंगे हम, तोड़ेंगे अन्याय की दीवार!

करो मरो की हुंकार उठी, काँप उठी थी ब्रिटिश सत्ता,
दफ़्तर, थाना, डाकघर – रण की ज्वाला बन गई।
मार्शल लॉ के बन्धन डाले, सेना भेजी, इनाम चढ़ाया,
पर सिद्धू-कान्हू की क्रान्ति का, न कोई रुख बदल पाया।

फाँसी पर चढ़ बलिदान दिया, फिर भी संघर्ष ना थमा,
चाँद-भैरव के रक्त से क्रान्ति का दीपक और जला।
कान्हू ने भी शीश चढ़ाया, फिर भी बढ़ता गया जुनून,
बोले – सतयुग लाएँगे, मिटेगा अन्यायपूर्ण कानून।

पेड़ों ने देखा पराक्रम, पहाड़ों ने देखा बलिदान,
नदियों ने धोए चरण, जब झूल गए वीर महान।
भाइयों-बहनों के साहस ने लिखी नई पहचान,
संघर्ष और त्याग से जागा जनजातियों का स्वाभिमान।

आज भी जंगलों में गूँजता, सिद्धू-कान्हू का जयघोष,
कार्ल मार्क्स ने भी माना इसे, प्रथम जनक्रान्ति का जोश।
संथालों का यह संग्राम अमर, मिटे न यह विद्रोह,
युगों-युगों तक धरती गाए, उनकी अमर कहानी जो।

प्रतीक झा 'ओप्पी' - चन्दौली (उत्तर प्रदेश)

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