संध्यावंदन - लघुकथा - ईशांत त्रिपाठी

संध्यावंदन - लघुकथा - ईशांत त्रिपाठी | Laghukatha - Sandhyavandan - Ishant Tripathi
"बहुत ही बकवास! दिमाग़ से पैदल है क्या एंकर, एक ही बात को बार बार दोहराता है। मुझे एच॰ओ॰डी॰ का फ़ोन नहीं आता तो यहाँ महत्वपूर्ण यज्ञ छोड़कर कभी नहीं आता। "संस्कृतविज्ञ आदित्य वेदमणि से झल्लाकर कहता है। वेदमणि और आदित्य अपने महाविद्यालय के पुरस्कार वितरण कार्यक्रम में सम्मिलित हुए जिसमें दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक मंच संचालक की भूमिका में थें। दोनों को उस कार्यक्रम में दोपहर 12 बजे से आए 4 बज रहे थे। आदित्य फिर ग़ुस्साकर कहता है कि मैं अपना त्रिकाल संध्यावंदन आदि दैनिकानुष्ठान छोड़कर इन गदहों को सुन रहा हूँ, मेरा पुरस्कार तुम ले लेना वेदमणि, मैं जा रहा हूँ। वेदमणि कुछ देर और धैर्यपूर्वक बैठने के लिए समझाता है। यार! शास्त्री आचार्य सब डबल किए बैठा हूँ; ऐसे पुरस्कार मेरे यहाँ बोरियों में भरे पड़े हैं। कोई पूछता भी नहीं पर तुम कहते हो वेदमणि तो बैठ लेता हूँ। मेरा फ़ोटो खींच लेना याद से पुरस्कार लेते समय का। पुरस्कार मिलते ही संध्यावंदन इष्ट कार्य हेतु बिना कार्यक्रम समापन के आदित्य पाँच बजे निकल जाता है। शाम सात बजे कार्यक्रम समाप्त होते ही वेदमणि महाविद्यालय से बाहर निकलता है तब पाता है कि आदित्य किसी व्यक्ति से वाक्युद्ध किए पड़ा है। हैरान वेदमणि बिना समय गँवाए घर को निकलता है क्योंकि उसे सचमुच संध्यावंदन करना है। किंतु यह विचारणीय है कि नैतिकता कि धार बनाने वाली संस्कृत को ऐसे अनैतिक मन धारण कर रहे हैं। जिस त्रिकाल संध्यावंदन में हवा पानी सूरज चाँद आदि से भी अपने अशिष्ट और पाप व्यवहार की बारम्बार क्षमा प्रार्थना होती है, उसका त्रैकालिक अभ्यस्त व्यक्ति की वाणी, विचार और धैर्य इतने पतनशील होंगे! संस्कृत और संस्कृति इन विद्वान ढोंगियों के अभिमान से बचे तो संभव है इनका उत्थान हों किन्तु न जाने कितने आदित्य संस्कृत की छाया में रहकर इसकी जड़ कुरेदने में लगे हुए हैं।


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