यथार्थ का गाँव - नज़्म - कर्मवीर 'बुडाना'

यथार्थ का गाँव - नज़्म - कर्मवीर 'बुडाना' | Nazm - Yatharth Ka Gaanv - Karmaveer Budana
मेरे दिल में बसी हर बात एक निशानी है,
बीता वो दौर पुराना, अब न आना-जानी हैं,
तुम चाहे करो इशारें, नहीं दिल में चाहत हैं,
माना हूँ कवि प्रेम का, पर कहाँ जवानी हैं।

तू बेशक मुझे कमज़ोर कह दे ऐ ज़िंदगी, 
पर तुझसे जीतना वाक़ई आसाँ नहीं हैं।
तेरे अलावा कोई और कमज़ोर कह दे,
इंसाँ की गिरिफ़त में मिरा गिरेबाँ नहीं हैं।

मैं तुम पर इस तरह मर गया
जैसे कोई आशिक़ मरता हैं,
फिर भी इस दौर में,
कहाँ कोई पथिक मरता हैं।

भटक कर यूँ ही
मन की नाव में,
आ गए हम फिर
यथार्थ के गाँव में।

वफ़ादार छुअन को इजाज़त देती हैं
हर एक रानी,
फिर क्यों तू सहम जाती हैं,
हो जाती हैं पानी-पानी।

हर ख़ूबसूरत इंसाँ-ओ-मोहब्बत ज़िंदा रहेगी,
बाँटी गई जो तबस्सुम, वो दुआएँ अता रहेगी।
कर्ब-ए-हिज्र पर मिरे अब तो तुम शिफ़ा करो,
तुम ख़्वाब में ही सही पर मुझ से वफ़ा करो।

उपजी 'कर्मवीर बुडाना' नाम की रेत
वसुंधरा तेरे खेत में,
मुक़द्दर की बात हैं,
'रेत' को रेत ना मिली रेत में।


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