घरेलू हिंसा - आलेख - सुषमा दीक्षित शुक्ला
शनिवार, अप्रैल 19, 2025
गरिमामय तरीक़े से जीने के अधिकार का हनन ही घरेलू हिंसा कहलाता है। वर्तमान समय में लोगो की असहिष्णुता, बेरोज़गारी, अति स्वार्थी प्रवत्ति, स्त्री पुरुषों के एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर, नशाखोरी, आदि दुष्प्रवत्तियों ने घरेलू हिंसा को बढ़ावा दिया है। एकल परिवार, बड़े बुज़ुर्गों से दूरी भी काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार है। ऊपर से बेरोज़गारी ने वैश्विक आबादी को घरों में रहने को मजबूर कर दिया है।
पहले तो स्त्रियाँ ही ज़्यादा घरेलू हिंसा का शिकार होती थी अब तो पुरुषवर्ग भी घरेलू हिंसा व मानसिक प्रताड़ना का शिकार होने लगे हैं। घरेलू हिंसा की समस्याओं की दर भी तेज़ी से बढ़ रही है वैसे तो विधिक रूप से घरेलू हिंसा की परिभाषा थी कि कोई भी ऐसा कार्य जो किसी महिला एवं 18 वर्ष से कम आयु के बालक एवं बालिका के स्वास्थ्य, सुरक्षा, जीवन पर संकट, आर्थिक क्षति और ऐसी पीड़ा जो असहनीय हो तथा ऐसी महिलाएँ बच्चे को अपमान सहना पड़े, घरेलू हिंसा के दायरे में आता है।
पर अब इस परिभाषा में बदलाव की ज़रूरत है क्योंकि घरेलू हिंसा के शिकार पुरुष वर्ग भी हो रहा जिसे उम्र की सीमा में नहीं रखना चाहिए। इसमें संशोधन की नितांत आवश्यकता है।
घरेलू हिंसा पर शोध कर रहे विशेषज्ञ बताते हैं― आजकल पति-पत्नी दोनों के जॉब में होने से ईगो हर्ट के कारण भी होती है घरेलू हिंसा।
कहीं कहीं पर दंपत्ति के सामने रोज़गार की कमी से असुरक्षा से व्याप्त तनाव से, महिलाओं पर अतिरिक्त कार्यभार के कारण, थकान से तनाव, वैवाहिक सम्बन्धो पर शक, मोबाइल से अत्यधिक जुड़ाव आपस के झगड़े को बढ़ावा दे रहे हैं। बच्चों के पढ़ाई के जगह मोबाइल में ज़्यादा मन लगना घरेलू हिंसा का बड़ा कारण है। बच्चे देखकर आपस मे झगड़ा मारपीट और गाली-गलौज का माहौल करते है, बाहर लोगों से भी मेल मिला पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है क्योंकि ज़्यादातर माहौल को देखकर पेरेंट्स डरते है कि बच्चा बिगड़ न जाए या उसके साथ कुछ बुरा न हो जाए जिससे बच्चे भी हिंसक हो रहे है समाज के लोग नकारात्मकता व कुंठा से अवसाद ग्रस्त होकर घरेलू हिंसा को अंजाम देते हैं। इस संकट की घड़ी में भारत में घरेलू हिंसा में सुधार लाने के लिए सबसे पहले क़दम के तौर पर यह आवश्यक होगा कि पुरुषों को महिलाओं के ख़िलाफ़ रखने के स्थान पर पुरुषों को इस समाधान का भाग बनाया जाए, मर्दानगी की भावना को स्वस्थ माइनों में बढ़ावा देने और पुराने घिसे पिटे ढर्रे से छुटकारा पाना ज़रूरी होगा। भारत सरकार ने महिलाओं और बच्चों को घरेलू हिंसा से संरक्षण देने के लिए घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 को संसद में पारित कराया है। यदि किसी भी महिला को कोई रिश्तेदार प्रताड़ित करता है तो वह घरेलू हिंसा के तहत आता है। सरकार ने वन स्टॉप सेंटर जैसी योजनाएँ प्रारंभ की जिनका उद्देश्य पीड़ित महिलाओं की सहायता करना है। कई जागरूकता अभियान भी चलाए गए हैं, घरेलू हिंसा से निपटने के लिए पुलिस की अलग विंग बनाने की जरूरत है। इस कार्य में सिविल डिफेंस के कार्यरत लोगों की सहायता ली जा सकती है। राष्ट्रीय महिला आयोग ने घरेलू हिंसा पीड़ित की मदद के लिए 15 से अधिक गैर सरकारी संगठन की एक टास्क फोर्स बनाने का निर्णय लिया है, ताकि महिलाओं को ज़रूरत के हिसाब से मदद की जा सके।
अब घरेलू हिंसा के मामले तीन गुना बढ़ गए हैं। बलात्कार व बलात्कार के प्रयास के मामलों में भी तेज़ी से वृद्धि हुई है। मारपीट के मामले भी काफ़ी बढ़े हैं। जिनसे पीड़ित को मुक्ति दिलाना ज़रूरी है।
पुरुषों को भी महिलाओं की प्रताड़ना से बचाव के लिए भी घरेलू हिंसा के दायरे में रखना चाहिए क्योंकि हमेशा महिलाएँ ही शिकार नहीं होती पुरुष भी होते हैं। आजकल समाज मे इसके अनेकों उदाहरण दिख रहे हैं।
अतः घरेलू हिंसा का निजी स्तर व सरकारी पर समाधान अति आवश्यक है क्योंकि हर किसी को स्वाभिमान से जीने का अधिकार मिलना चाहिए।
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