हम सुनाते दास्ताँ अपनी कि वो सुनाने लगे - ग़ज़ल - सुनील खेड़ीवाल 'सुराज'

अरकान: फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन
तकती: 22  22  22  22  22  22

हम सुनाते दास्ताँ अपनी, कि वो सुनाने लगे
हम करते आग़ाज़-ए-इश्क़, कि घबराने लगे

वो हमसफ़र क्या बने, अंजानी राह पर मेरे
हमने देखा एक नज़र, बस वो शर्माने लगे

थी चश्म को जुस्तजू , उन बेपर्दा निगाहों की
और वो देखते ही, नज़रों से नज़रे चुराने लगे

हमने कहा, इतनी आसानी से ना मिले तुम
मिरे सजदे क़बूल, होने में तो ज़माने लगे

हँसकर बोले, तुम्हें पाने को ख़ूब तरसी हूँ
इतना कहते ही, वो क़रीब मेरे आने लगे

क़िस्सा बयाँ अंजाम-ए-इश्क़, क्या 'सुराज' करे
हम गहरी नींद में थे, और सब जगाने लगे


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