सुनिता पन्ना - ग़ाज़ियाबाद (उत्तर प्रदेश)
गप्पों: बीसवाँ चित्र - कहानी - सुनिता पन्ना
शनिवार, अप्रैल 26, 2025
आज सुबह-सुबह मैं सैर के लिए लेडीज पार्क गई। यह पार्क हमारे घर से लगभग डेढ़-दो किलोमीटर की दूरी पर ही है। मेरा पिछले 15 सालों से ग्वालियर आना-जाना लगा रहता है, परंतु लेडीज पार्क जाना पहली बार हुआ है। पार्क छोटा, पर बहुत ही ख़ूबसूरत है। ऐसा लगता है कि हर कोना, हर पेड़ जैसे कोई कहानी बयाँ कर रहा हो।
पार्क की एक दीवार पर बने भित्ति चित्रों की शृंखला ने मेरी चाल धीमी कर दी। परंपरागत जीवन से हटकर समाज में सार्थक योगदान देने वाली भारतीय महिलाओं के भित्ति चित्र बने हुए थे, जिसमें वैदिक काल की गार्गी से लेकर रानी लक्ष्मीबाई, ऐनी बेसेंट, आधुनिक ज़माने की अरुंधती रॉय व मैरी कॉम तक के भित्ति चित्र इतने प्रभावशाली ढंग से बने हुए थे कि मैं उनमें खो सी गई। हर चेहरा अपनी कहानी बयाँ कर रहा था। 19 चित्र देखने के बाद जैसे ही मैं 20वें और अंतिम चित्र तक पहुँची मैं ठिठक गई क्योंकि वह चित्र मेरा था। तुरंत ही मुझे अहसास हुआ कि ये चित्र नहीं– आईना है। और उस आईने में मेरा अक्स दिख रहा था।
क्या मैं इतनी महत्वपूर्ण हूँ? क्या मैंने ऐसा कोई काम किया है, जिसके कारण मेरा चित्र वहाँ होना चाहिए? रास्ते भर यह सवाल मेरे भीतर गूँजता रहा। मैं अपने परिवार को पार्क के बारे में बताने के लिए आतुर थी। ऐसा लग रहा था, मानो मैंने किसी रहस्य को खोज लिया हो। लेकिन जैसे ही गेट पर पहुँची एक अलग ही दृश्य मेरा इंतज़ार कर रहा था।
बरामदे में माँ और मेरे पति मौन बैठे थे। उनके सामने मेज में रखी चाय ठंडी हो चुकी थी, और पास में ही रेशमा उदास खड़ी थी।
“क्या हुआ?” मैंने पूछा।
माँ ने धीमी आवाज़ में कहा, “गप्पों नहीं रही।”
गप्पों? यह नाम सुनकर मैं चौंक गई।
“क्या मतलब?” मैंने अविश्वास से पूछा।
इस बार माँ की बजाय रजनी ने जवाब दिया, “वह भगवान को प्यारी हो गई।”
मेरे मन में क्यों, कैसे, कब प्रश्न तो पैदा ही हुए, पर उसके साथ-साथ मन उद्विग्न हो गया। गप्पों का चेहरा आँखों के सामने तैर रहा था। उसकी उन्मुक्त हँसी और उसका ज़रूरत से ज़्यादा बोलना, प्रोजेक्टर पर चल रही स्लाइड की तरह एक-एक कर आँखों के सामने आ जा रहे थे।
गप्पों—रेहाना की पक्की सहेली थी। अक्सर ही वह रेहाना के साथ हमारे घर आया करती थी, जो हमारे घर में खाना बनाने का काम करती थी। जब तक रेहाना खाना बनाती, गप्पों ख़ूब बतियाती व खिलखिलाती थी, और साथ ही साथ छोटे-मोटे काम कर दिया करती थी। वह इतना बोलती थी कि कभी-कभी मैं उसके बातूनीपन से खीज उठती थी।
ऐसे ही एक दिन मैंने उससे पूछा था, “तुम इतना बोलती हो, तुम्हारा नाम गप्पों किसने रखा?” “पता नहीं भाभी, जब से होश संभाला है, मैंने सबको गप्पों ही कहते सुना है,” हँसते हुए उसने जवाब दिया था।
माँ ने बताया था कि गप्पों हमारी कॉलोनी के घरों में तब से काम कर रही है, जब वह बारह-तेरह वर्ष की थी। कॉलोनी में शायद ही का कोई घर होगा, जो गप्पों को न जानता हो।
एक दिन मैंने उत्सुकतावश उसके परिवार के बारे में पूछा। उसने बताया कि वे छह बहनें हैं। पिता का कोई अता-पता नहीं है। वह कई सालों पहले छोड़कर भाग गया था। माँ है, लेकिन मानसिक रोगी है।
गप्पों का जीवन संघर्षों से भरा था। गप्पों बहनों में सबसे बड़ी थी, इसलिए परिवार की सारी ज़िम्मेदारियाँ उसके कंधे पर आ पड़ी थीं। माँ की दवाई, बहनों की पढ़ाई, उनका निकाह, सबकुछ उसकी ज़िम्मेदारी थी।
गप्पों ने सारी ज़िम्मेदारियाँ बख़ूबी निभाई। एक-एक कर सारी बहनों का निकाह करा दिया। इसी बीच माँ भी चल बसी थी। मेरी गप्पों से आख़िरी मुलाक़ात तीन साल पहले हुई थी। तब उसकी सबसे छोटी बहन का निकाह होने वाला था।
मुझे आज भी गप्पों की बातें याद हैं। उसने कहा था, “भाभी अब नाज़िया का भी निकाह हो जाएगा। मेरी सारी ज़िम्मेदारियाँ निपट जाएँगी, मैं तो एकदम ख़ाली हो जाऊँगी, मेरी ज़िंदगी एकदम सूनी हो जाएगी। मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि मैं क्या करूँगी किसके लिए जिऊँगी?”
मैंने कहा था, गप्पों! “अब अपने लिए जीना। अपनी इच्छाएँ पूरी करना। तुम भी निकाह कर लेना।” उसने कहा, “धत् छत्तीस बरस में कौन मुझसे निकाह करेगा?” यह कहते हुए वह खिलखिला पड़ी, पर अपनी खिलखिलाहट के पीछे वह अपनी आँखों की नमी को छिपा नहीं पाई थी।
गप्पों के बारे में सोचते हुए मैं अतीत में पढ़ी एक कहानी में उलझ गई। गप्पों मुझे उस कहानी की नायिका की तरह लगी थी। कहानी का नाम और उसके लेखक का नाम तो मुझे याद नहीं, पर कहानी का मेरे मन मस्तिष्क पर गहरा असर था।
दूसरे विश्व युद्ध में अपने पूरे परिवार को खो देने के बाद, नायिका अवसाद के गहरे अंधकार में खो चुकी थी। उसे अपने जीवित रहने का कोई अर्थ नहीं समझ आ रहा था। ऐसे में वह तय करती है कि अपने भाई-बहन के सपने पूरे करेगी। वह ट्रक ड्राइवर और फिर नर्स बनकर अपने भाई-बहन के सपनों को जीती है। लेकिन उसके बाद अब क्या? वह अपने बचपन के सपने को पूरा करने का निर्णय लेती है, और सर्कस में काम करने चली जाती है—जो कि उसका अपना सपना था। आगे का जीवन वह अपने सपने को जीती है। मुझे गप्पों में वह नायिका और नायिका में गप्पों दिखाई देने लगी थी। दोनों मेरे मस्तिष्क में एक-दूसरे में गड़मड़ हो रहे थे।
तीन सालों से गप्पों से मिलना नहीं हुआ था। कुछ मैं अपने कामों में व्यस्त हो गई थी, और कुछ कोविड के दौरान लॉकडाउन के कारण ग्वालियर जाना भी कम हो गया था। रेहाना की शादी हो जाने के बाद, रजनी को हमारे घर खाना बनाने के लिए गप्पों ही लेकर आई थी।
रेहाना के चले जाने के बाद, धीरे-धीरे गप्पों का भी घर में आना-जाना कम होता चला गया।
अब उसका ज़िक्र भी कम होने लगा था, और फिर समय के साथ धीरे-धीरे वह यादों में धुँधली पड़ती चली गई।
रजनी ने बताया, “नाजिया के निकाह के बाद गप्पों बहुत अकेली हो गई थी। उसने अपने से उम्र में पाँच साल छोटे हिंदू व्यक्ति से प्रेमविवाह कर लिया था, लेकिन उसके ससुराल वालों ने उसे कभी नहीं अपनाया, क्योंकि उनकी नज़रों में गप्पों के दो बड़े गुनाह थे– एक, उसका मुस्लिम होना; दूसरा, पति से बड़ी उम्र का होना। गप्पों अपने पति के साथ अलग रहने लगी थी। उसकी छोटी सी दुनिया ख़ुशियों से भर गई थी। ज़िंदगी इतनी ख़ुशनुमा भी हो सकती है इसका एहसास उसे अब हुआ था। देखते ही देखते दो साल बीत गए। इसी बीच वह एक बेटे की माँ बन चुकी थी। फिर आया लॉकडाउन जिसने लाखों लोगों की ख़ुशियाँ छीन ली थीं। गप्पों की ज़िंदगी भी इससे अछूती नहीं रही। लॉकडाउन के दैत्य ने उनकी आमदनी छीन ली जिससे धीरे-धीरे उसकी ख़ुशियाँ धूमिल होने लगीं।
ज़िंदगी की कश्मकश से घबरा कर गप्पों का पति उसे छोड़ कर वापस अपने परिवार के पास भाग गया। गप्पों फिर से अकेली हो गई? नहीं, इस बार वह अकेली नहीं थी, इस बार उसके पास उसका नौ महीने का बच्चा था— उसका जीवन था। पहले वह बहनों के लिए ज़िंदा थी। अब उसे अपने बेटे के लिए जीना था।
शायद कुदरत अभी उसका और इम्तिहान लेना चाहती थी। एक दिन उसके बेटे की तबियत बहुत बिगड़ गई। सरकारी अस्पताल में कोरोना मरीजों के अलावा किसी और का इलाज नहीं हो रहा था, और प्राइवेट अस्पताल में दिखाने के लिए उसके पास पैसे नहीं थे। आख़िर में, सब तरफ़ से निराश होकर उसने अपने ससुराल के दरवाज़े पर दस्तक दी। उम्मीद थी कि वे एक माँ की ममता को समझेंगे, इस मासूम की जान बचाने के लिए कुछ न कुछ करेंगे– आख़िर ये उनका भी तो ख़ून है।
लेकिन ससुराल वालों के दिल में न ममता थी, न दया। उन्होंने मदद करने से साफ़ इंकार कर दिया। गप्पों ने बच्चे का वास्ता दिया और गिड़गिड़ाते हुए बोली, “अगर मुझसे नफ़रत है कोई बात नहीं, पर इसे तो जीने दो! ये तुम्हारे घर का बच्चा है!” पर किसी ने उसकी नहीं सुनी।
पड़ोसियों को उनके घर से झगड़े, चीख़ने-चिल्लाने और गप्पों की दहाड़ मारकर रोने की आवाज़ें सुनाई दे रही थीं। लेकिन लॉकडाउन का ऐसा ख़ौफ़ था कि कोई तमाशा देखने भी बाहर नहीं निकला। शायद कोई बाहर आता भी तो क्या कर लेता? समाज में तो हमेशा से यही सिखाया गया है– “दूसरों के घरेलू मामलों में दख़ल नहीं दो!” लेकिन उस रोज़ जो हुआ, वो किसी घर की नहीं पूरे समाज की बात थी।
अगले दिन ख़बर आई कि गप्पों और उसके बच्चे को जला दिया गया। पता नहीं उनकी घृणा किस बात में ज्यादा थी– उसके मुसलमान होने पर या पति से उम्र में बड़ी होने पर, या शायद दोनों ही। घृणा की आग की लपटें इतनी ऊँची थीं कि नौ माह के मासूम बच्चे की चीख़ें भी दोनों को न बचा पाईं। गप्पों की ज़ुबान, जो बहुत बोलती थी, हमेशा के लिए मौन हो गई।
मैं सिहर उठी, मेरी पसंदीदा कहानी की नायिका अपने जीने के तरीक़े को चुनने में सफल हुई थी। उसने जीवन का आलिंगन किया था। लेकिन गप्पों...
गप्पों, जो दूसरों के लिए जीती रही, कभी अपने लिए जीने का अधिकार नहीं पा सकी। उसने परिवार को सँवारने और बहनों को सुरक्षित जीवन देने की कोशिश में, अपना समूचा अस्तित्व झोंक दिया, लेकिन समाज ने उसे निर्दयता से ख़त्म कर दिया।
अब उसका बातूनीपन किसी को परेशान नहीं करता, न ही उसकी अनुपस्थिति किसी को खटकती है।
समाज उसे भूल जाएगा, जैसे वह कभी थी ही नहीं। उसकी आवाज़, उसका संघर्ष, उसकी हँसी और आँखों की नमी— सबकुछ भीड़ में खो जाएगा।
पर मैं... मैं उसे भूल नहीं सकती।
लेडीज पार्क की उस दीवार पर बीसवाँ चित्र अब एक आईना नहीं रहा— वह मेरे लिए गप्पो का चेहरा है। थकान से भरा, लेकिन मुस्कराता हुआ।
वह मेरी नायिका है, समाज के उन अनगिनत, अनसुने, अनजाने नायकों में से एक—जिनकी कहानियाँ दुनिया की भीड़ में लुप्त हो जाती हैं।
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