आत्मबोध - कविता - प्रवीन 'पथिक'
गुरुवार, अप्रैल 17, 2025
इस क़दर ज़िंदगी को
जिए जा रहा था, कि
हर क़दम पर मेरा साथ दोगे।
पाथेय बनकर सदा रहोगे मेरे साथ;
ऑंचल की छाँव की तरह।
लेकिन तुमने तो कुछ दूर चलकर ही,
अपने मार्ग बदल लिए।
शायद! शांति की तलाश में;
या सच्चे प्रेम की खोज में।
दूरियाॅं प्रेम की डोर को
नहीं तोड़ सकती।
और ना कभी मिटा सकती।
व्यक्ति चाहें जितनी दूर चला जाए
जाता, उसी हृदय के साथ ही
जिसमें यादों आलमारी सजी होती है।
टूटता सिर्फ़ हृदय नहीं
अपितु टूटता तो व्यक्ति है।
जो कभी जुड़ नहीं पाता।
एक रिक्तता सदैव रहती है;
उसके अंतः करण में।
एक पीड़ा सदा सालती रहती है।
जिस खालीपन को,
ना तो कभी भर सकता है।
और ना कभी हृदय की पीड़ा को
शांत ही कर सकता है।
एक कचोट,
सदा बनी रहती है–
जीवन के अंतिम क्षणों तक।
शायद! मरने के बाद भी।
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