गंगा की लहरों में - कविता - अदिति वत्स

गंगा की लहरों में - कविता - अदिति वत्स | Hindi Kavita - Ganga Ki Lahron Mein - Aditi Vats. ऋषिकेश शहर पर कविता
ऋषिकेश,
मैं तुमसे मिलने आई थी,
पहली बार,
जैसे कोई तीर्थयात्री
अपनी आत्मा की खोज में
किसी अनजान मंदिर की ओर भटक जाए।
तेरा नाम
मेरे कानों में
किसी प्राचीन भजन की तरह गूँजा था,
जो सदियों से
मेरे भीतर सोया था।
मैं तुझे जी भरकर देख न सकी,
पर जितना देखा,
वह मेरे हृदय पर
किसी शाश्वत शिलालेख की तरह
खुद गया।

तुम पूछोगे,
क्यों आई मैं तेरे पास?
नहीं, मैं पुण्य की भूखी नहीं थी।
न गंगा में डुबकी लगाने की चाह थी,
न मोक्ष की कोई लालसा।
बस, एक रात,
मेरी नियति ने
मेरे क़दमों को
तेरे किनारे बाँध दिया।
जैसे कोई लहर
बिना इरादे
किनारे से टकरा जाए।

मसूरी गई थी पहले,
यूँ ही,
जैसे कोई अधूरी कविता
मुझे अपनी पंक्तियों में
पूरा करने बुलाए।
मॉल रोड पर
निर्मल वर्मा की कहानियों के बिम्ब
मेरी आँखों में तैरने लगे—
कोहरा, पहाड़, तन्हाई।
पर समय की क्रूर उँगलियों ने
मुझे उसे छूने तो दिया, पर
महसूस करने से रोका। फिर
अमृता प्रीतम की क़सम खाकर लौटी,
कभी फिर लौटूँगी,
उस अधूरे स्पर्श को पूरा करने।
देहरादून की सड़कों ने
मुझे तेरे पास,
ऋषिकेश,
खींच लिया।

शाम का धुंधलका
गंगा के किनारे पसर रहा था।
नीर झरने की चढ़ाई
मेरे लिए
पहली मुलाक़ात थी
पहाड़ों की ख़ामोश चुनौती से।
कच्चा रास्ता,
फिसलन भरे पत्थर,
मेरे चप्पलों को मुँह चिढ़ाते थे।
हरिद्वार की मनसा देवी की सीढ़ियाँ
मेरे ज़हन में उभरीं,
पर यहाँ हर क़दम
मेरे वजूद की परीक्षा लेता था।
पसीने की बूँदें
मेरे माथे पर
किसी तपस्या की तरह चमकीं।
और सबसे ऊपर,
चौकी पर बैठकर,
चाय की चुस्की ने
मेरे थके हुए शरीर को
जीवन का आलिंगन दिया।

नीचे उतरकर,
होटल की दीवारों में
मैंने साँस ली,
पर गंगा का बुलावा
मुझे बेचैन कर गया।
घाट की ओर चली,
जहाँ चाँद की छाया
पानी पर
किसी स्वप्न की तरह लहरा रही थी।
कुछ धुँधली परछाइयाँ,
सीढ़ियों पर बैठी,
कबीर के भजन गा रही थीं—
“सुनता नहीं धुन की ख़बर,
अनहद का बाजा बजाता…”
वह स्वर
मेरे सीने में
किसी खोई हुई प्रार्थना की तरह
उतर गया।

हवा ठंडी थी,
इतनी कि
गंगा की लहरें
सिहरन में डूब गईं।
मंदिर की लाल रोशनी
पानी में उतर रही थी,
जैसे कोई प्रेमी
गंगा के माथे पर
सिंदूर सजा रहा हो।
मैं ठिठक गई।
गंगा का यह शृंगार
मेरी आँखों में
किसी पवित्र कविता की तरह
बस गया।
हरिद्वार में,
बचपन की स्मृतियों में,
मैंने गंगा का आकर्षण जाना था।
पर यहाँ,
वह मेरे सामने थी—
बिना रुके,
बिना थके,
अपनी अनंत यात्रा पर।

मैंने सोचा,
क्या मैं भी
कभी ऐसी थी?
क्या मेरी आत्मा
कभी नदी की तरह
बेरोकटोक बही थी?
फिर क्यों
मेरे ख़ून में
पत्थर जम गए?
क्यों मेरी साँसें
किसी अनदेखी क़ैद में
ठहर गईं?
हवा ने मुझे झकझोरा।
मेरी शॉल
होटल में छूट गई थी।
मेरे हाथ
ठंड से अकड़ रहे थे,
पर मेरा दिल
गंगा की लहरों में
डूबना चाहता था।

होटल की दीवारें
मुझे काटने लगीं।
हम छत पर चले गए,
जो गंगा के क़रीब थी।
ग्रिल ने
मेरी आज़ादी को
सुरक्षा के नाम पर
बाँध रखा था।
सब बातें कर रहे थे—
जीवन, दुख, दर्शन।
पर मेरे कानों में
वह सब
किसी दूर की बुदबुदाहट बन गया।
मुझे सिर्फ़
हवा की छुअन महसूस हो रही थी।

हवा मुझसे कुछ कह रही थी,
जो मैंने
घाट पर
अधूरा छोड़ दिया था।
मैं उसके पीछे भागी,
हर उस दिशा में,
जहाँ वह मेरी आत्मा को
सहलाकर बुला रही थी।
मेरे क़दम
अब मेरे नहीं थे।
मैं हवा की धुन पर
नाचने लगी।
नाचती गई,
जैसे मैं
गंगा की एक लहर हूँ,
जो अनंत में विलीन हो जाना चाहती है।

उस पल,
मैंने दुनिया को भुला दिया।
समाज के बंधन,
ख़ुद की पहचान,
सब मेरे पीछे छूट गए।
मैं आज़ाद थी—
न सिर्फ़ दुनिया से,
बल्कि अपने आप से।
यात्रा ने
मुझे मेरे भीतर
किसी अनजान मुलाक़ात से जोड़ा।
तुमसे मिलकर,
ऋषिकेश,
मैंने जाना,
आज़ादी सिर्फ़ शरीर की नहीं,
आत्मा की होती है।

फिर मैं गिर पड़ी,
नाचते-नाचते।
पर उस हवा की ख़ुशबू
मेरी रगों में
किसी अमर गीत की तरह
समा गई।
वह क्या था?
आज़ादी?
या मेरी आत्मा की चीख़,
जो सदियों से
मुझमें दबी थी,
और अब
गंगा की लहरों में
मुक्त हो रही थी?

अगली सुबह,
गंगा घाट पर
चिताएँ जल रही थीं।
धुआँ उठता था,
जैसे आत्माएँ
अपनी अंतिम यात्रा पर
निकल रही हों।
मैंने देखा,
कुछ तुम तक
भीतर की आज़ादी के लिए आते हैं,
कुछ बाहर की।
मैंने उस आज़ादी की गंध
अपने सीने में चुरा ली,
जैसे कोई कवि
अपनी अंतिम साँस को
कविता में बाँध लेता है।

ऋषिकेश,
तुम मेरे लिए
सिर्फ़ एक शहर नहीं।
तुम मेरी आत्मा का वह टुकड़ा हो,
जो मैंने
गंगा की लहरों में
हमेशा के लिए छोड़ दिया।
तुम वह हवा हो,
जिसने मुझे
ख़ुद से आज़ाद कर दिया।
अब,
जब मैं लौट आई हूँ,
मेरे सीने में
तुम्हारी स्मृति
किसी अनंत गीत की तरह गूँजती है।
मैं उसे गुनगुना नहीं सकती,
पर मेरी हर धड़कन
उसी गीत को जीती है।
तुम मेरे भीतर
किसी अनजानी पुकार की तरह
हमेशा बने रहोगे,
जैसे गंगा,
जो कभी नहीं रुकती।

अदिति वत्स - नई दिल्ली (दिल्ली)

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