मकड़ी - कविता - प्रवीन 'पथिक'
बुधवार, अप्रैल 23, 2025
अपने कटु मनोभावों का जाल,
बुनती हुई मकड़ी!
सोद्देश्य–
निमग्न अवस्था में
कुएँ के अंतिम छोर तक;
पहुॅंच गई है।
अप्रत्याशित रूप से,
वह ख़ुशी के मारे
पलट कर पीछे देखा–
और सोचा।
कोई-न-कोई तो
फँसा ही होगा,
उस महाजाल में।
पर, अफ़सोस!
वह स्वयं फँसी थी।
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