पता ही नहीं चला - कविता - प्रवीन 'पथिक'
सोमवार, अप्रैल 07, 2025
दो दिलों का मिलन,
कब साँसों की डोर बन गई?
पता ही नहीं चला।
जीवन की ख़ुशनुमा शाम,
कब सुहावनी रात बन गई?
पता ही नहीं चला।
उसी शाम तो तुमने कुछ कहा था;
हमेशा साथ रहेंगे–
जैसे चन्द्र के साथ उसकी चाॅंदनी रहती है।
तुमने कहा था–
हमारा प्रेम शाश्वत है, अटल है।
जैसे हिमालय, सागर, झरने, नदियाॅं ,लहरें।
और भी बहुत कुछ कहा था–
पर, मैं सुन नहीं सका
क्योंकि मैं डूब गया दिवास्वप्न में।
जहाॅं मैं था, तुम थी;
और हमारी छोटी-सी दुनिया थी।
जहाॅं हम स्वछंद विचर सकते थे।
नदियों की राग-मय ध्वनि सुन सकते थे।
हंसो के जोड़े को,
साथ-साथ तिरते देख सकते थे।
शुको का प्रेमालाप सुन सकते थे।
और प्रकृति के मनोरम ऑंचल में सो सकते थे।
और भी बहुत कुछ था,
जिसकी अंतस्थल में हम उतर सकते थे।
पर, पता ही नहीं चला।
और तुम बोलती रहीं ,मैं ख़्वाबों में खोया रहा
वह कितनी मधुर दुनिया थी
जहाॅं मैं था और सिर्फ़ तुम थी।
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