ईशांत त्रिपाठी - मैदानी, रीवा (मध्य प्रदेश)
बेलपत्र - लघुकथा - ईशांत त्रिपाठी
सोमवार, अप्रैल 07, 2025
"कितना कष्ट होता है जब जीवन विकल्पहीन निभने की अनिवार्यता माँगे" बारह वर्षीय चारु की माँ अपने घर सात साल बाद आई सखी माधुरी के विकलांग संतान को लेकर बोझिल भाव व्यक्त करती है। इतना सुनते ही माधुरी बड़ी मिन्नतों से जन्मे अपने बेटे को गले से लगा लेती है और हीनता उसे स्पर्श करती उसके पहले ही वहाँ से बेटे को गोद में लेकर निकल जाती है। माधुरी का यूँ हड़बड़ी में चले जाना चारु की माँ को बिल्कुल भी असहज नहीं किया क्योंकि उसका शिवालय दर्शन का समय हो चुका था। "माँ! देख तो! आज पूजा का सामान मैंने तैयार कर लिया" चारू उत्साह से माँ को सम्पूर्ण सामग्री दिखाती है। "आहहा! मेरी बिटिया रानी ने तो बढ़िया सजाया है पर ध्यान रखना बेलपत्र कटे-फटे नहीं चढ़ते हैं। "नियम गौर करवाते हुए चारु की माँ सजे बेलपत्र में से कटे-फटे छाँटने लगी। "अच्छा! माँ तू कहती है कि ऐसे बेलपत्र नहीं चढ़ते तो इनका क्या होगा?" ऐसी बातों के साथ छटे हुए बेलपत्रों के प्रति चारु की सहानुभूति बढ़ती ही गई। "तू चुप करेगी, मंदिर को अबेर हो रहा है। "माँ चारु को लेकर शिवालय निकल जाती है। दोनों मिलकर मंदिर में पहले की तरह पूजा करते हैं पर चारु का मन न जाने क्यों अपने पर्स पर ही लगा हुआ था। माँ के इधर-उधर थोड़ा जाते ही चुपचाप वह उसमें से कटे-फटे बेलपत्र निकालकर भोलेनाथ की ओर रखती है और करूणाप्लावित वाणी से शिकायत करती है, "जब तुमको पता है कि कटे-फटे नहीं चढ़ेंगे तुम पर तो क्यों बनाते हो ऐसे बेलपत्र! अब ये कहाँ जाएँगे?" यह बात सुनकर पुजारी जी खिलखिला कर हँस पड़े। इतने में चारु की माँ घर चलने के लिए चारु को लेने आ जाती है। पुजारी जी रोककर बताते हैं कि "भवानी! बहुत बड़ी बात बोल दी है पर शास्त्रानुसार कटे-फटे बेलपत्र भी भोलेनाथ उतने ही चाव से स्वीकारते हैं जितना अच्छे वाले को। सर्जक की दृष्टि में उसके हर सृजन का महत्व बराबर होता है" पुजारी जी से चारु की माँ अपनी बेटी का पूरा वृतांत सुनकर प्रसन्न होने के स्थान पर स्तब्ध रह गई। उसे माधुरी से की गई वार्ता स्मरण हो भीतर से खसोट गई।
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