दीदी - लघुकथा - ईशांत त्रिपाठी

दीदी - लघुकथा - ईशांत त्रिपाठी | Laghukatha - Didi - Ishant Tripathi laghukatha-deedee-ishant-tripathi
"फ़ोन उठाओ देवराज!"
"दीदी, कुछ कार्यों को‌ लेकर अभी व्यस्त हूँ।"
"दीदी नहीं कहा करो।"
देवराज साश्चर्य पूर्ण रूप से सम्पर्क भंग कर देता है; इस अच्छा न‌ लगने का अभिप्राय भी तो स्पष्ट ही था। गत दो दिन हुआ देवराज और निधि को महाविद्यालय के करीब शिवालय में मिले। "पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं---शम्भु:" देवराज प्रतिदिन की भांति लयात्मक शिवतांडव स्तोत्र का पाठ कर ही रहा था पर आज किनारे बैठी एक कन्या देवराज को मुड़ मुड़ कर देखे ही जा रही थी। पाठ समाप्ति के साथ अवसर पा निधि देवराज के क़रीब जाती है और उसके कंठ की भूरि भूरि प्रशंसा करती है। दोनों ही अपने स्नातकोत्तरीय छात्र जीवन का परिचय विनिमय करते हुए आनन्दित होते हैं। अब देवराज को शिक्षार्थ कुछ कार्य थे जिसके कारण वह निकलने लगता है। "अब आगे हम कैसे जुड़े रहेंगे, चलो नंबर ले लेते हैं, कभी बात हो जाएगी।" 
"ठीक है दीदी, मैं बोलता हूँ नंबर" "दीदी मत कहना अब से" निधि की इस बात पर देवराज का विशेष ध्यान नहीं गया किंतु आभास था कि कुछ असाधारण है। रात्रि में निधि देवराज को फ़ोन पर संदेश भेजती है "क्या कर रहे हो? मिलकर बहुत अच्छा लगा, मैं बहुत प्रभावित हुई तुमको देखकर, तुम्हारे पाठ को और तुम्हारे ज्ञान को सुनकर। अब हम कब मिलेंगे?"
देवराज की दूरदृष्टी प्रत्युत्तर करने की हामी नहीं भरती है। वह अपने अध्ययन में लग गया कुछ गहन सोच के साथ। माता-पिता अपने आँख के तारों को दूर परदेश शिक्षार्थ, पतझड़-सावन देखने और जीवन की सूक्ष्मता भाँपने के लिए सुव्यवस्थित भेजा करते हैं किंतु इस संतान को उनके इस महान यज्ञ के संकल्प खंडन का तनिक भी भय नहीं, क्यों? महाविद्यालय के परिसर में साँझ होते ही रोशनी से चमकती सड़कें क्यों खाली हो जाती हैं? और भर जाती है अंधेर गुप्प वृक्षों की ओट इन बालक बालिकाओं के तामसी समीपता से। इसका कारण कलुषित शिक्षा है अथवा इसके धारक? शिक्षा रीति ही बंजर है तो कहाँ से आएगी वैचारिक हरियाली, पहनने ओढ़ने से लेकर बातचीत, मित्र-बंधु, घर परिवार, समाज और राष्ट्र की प्राथमिक सुंदरता।


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