संदेश
बढ़ती भूख - कविता - महेश कुमार हरियाणवी
अन्न के ही अन्नदानों भारती के खलिहानों, धरती पुकारती है बैठ मत जाइए। बोल रही सर पर महँगाई घर पर, लुट रही लाज आज फिर से बचाइए। जिनसे है…
भूख - कविता - डॉ॰ सिराज
शाम को वापस आना, और कुछ लेते आना। कल से संभाले रखा है इन्हें, समझा-बहला कर। अब और सहा नहीं जाता, बीमारी में भूख को। देखो इनकी आँखें धस…
भूख - कहानी - पुश्पिन्दर सिंह सारथी
सुरेश सब्ज़ी लेने बाज़ार जाता है तो रास्ते मे देखता है कि सड़क किनारे एक महिला अपने बच्चे को गोद मे लिए परेशान बैठी है। सुरेश को रहा नहीं…
भूख - कविता - गाज़ी आचार्य 'गाज़ी'
हे ईश्वर तेरा खेल निराला होता है। सबको समान बनाया तूने, कोई अमीर तो कोई ग़रीब क्यों होता है? तेरा बनाया इंसान भूखा ही रहता है, कोई धन द…
देखो ये भूखा प्यासा - कविता - अंकुर सिंह
देखो ये भूखा प्यासा, घर परिवार छोड़ चला। दो पल की रोटी ख़ातिर, अपनों से मुँह मोड़ चला।। उदर में जब उठती ज्वाला, खा रोटी होता मतवाला। क…
भूख - कविता - असीम चक्रवर्ती
हमने भूख को देखा है पेट में पलते हुए। भूख को अनुभव किया है बार-बार जन्म लेते हुए। भूख को देखा है चिलचिलाती धूप में कामगार मज़दूरों के …
इंसान की भूख - कविता - प्रद्युम्न अरोठिया
इंसान को इंसान की भूख ने मारा, हड्डियों के ढाँचों का शहर कर डाला। हर तरफ़ एक ही चीख़ निकलती है, मौत ने नींद जो गहरी दे दी है। कोई नहीं स…
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