संदेश
इमारतें - कविता - ऊर्मि शर्मा
शहर की ऊँची इमारतें ख़ून पसीना पिए खड़ी है इसी गाँव के ग़रीब मज़दूर का पल में घुड़क दिया फुटपाथ से उसे उखाड़ आशियाना चार-हाथ का उ…
एक पल के लिए भी मुख मोड़ती नहीं - ग़ज़ल - रज्जन राजा | ग़रीबी पर ग़ज़ल
अरकान : मफ़ऊलु फ़ाइलात मुफ़ाईलु फ़ाइलुन तक़ती : 221 2121 1221 212 एक पल के लिए भी मुख मोड़ती नहीं, नाता हमारा सुख से कभी जोड़ती नहीं। कई प…
आम आदमी - कविता - महेन्द्र 'अटकलपच्चू'
जिसका पेट भरा हो, उसको क्या फ़र्क़ पड़ताज़ आम आदमी ही, ग़रीबी में मरता। खा जाते है मोटी तोंद वाले, हक़ हमारा, बची खुची से पेट पालता, मरता क…
ग़रीबी - कहानी - पुश्पिन्दर सिंह सारथी
माँ जब मैं शाम को फ़ैक्ट्री से घर आता हूँ तो रास्ते मे बहुत सारे पार्क मिलते है उस पार्क मे मेरे उम्र के बच्चे खेलते है। मेरा भी मन हो…
विवशता - कविता - प्रवीन "पथिक"
ग़रीबी ने कर दिया घर में क़ैद! बाहरी चकाचौंध आँखों को कर रही धूमिल; इच्छाएँ दफ़्न हो गईं मज़ार के नीचे। और एक पनारा बन गया आँख के कोरों म…
क्या होता है सम्मान - कविता - डॉ. विपुल कुमार भवालिया "सर्वश्रेष्ठ"
कचरे के ढेर में से खाना उठाता, कभी किसी दुकान पर खाने के लिए पिटता, कभी किसी की टाँगों से लिपटता, उसे नहीं पता क्या होता है, सम्मान। क…
ज़िंदगी को देखा - कविता - नृपेंद्र शर्मा "सागर"
आज एक ज़िंदगी को देखा सूखे पुल के पाइप में जीते हुए। आज अबोध बचपन को देखा चावल का पानी दूध की जगह पीते हुए। आज ग़रीबी को देखा दुश्वारियो…
बने न जीवन ज़हर - कविता - सूर्य मणि दूबे "सूर्य"
तुम भी फटेहाल और वो भी फटेहाल, तुम तन दिखाते रहे वो तन छिपाता रहा। ठंढ में ठिठुर कर वो जीता रहा, दाने दाने तरस कर वो मरता रहा। पसंद न …
दलित - कविता - संजय राजभर "समित"
मैं सदियों से भूखा हूँ, आओ जरा हमारी बस्ती में, झाँककर देखो गृहस्थी में। कचराई आँखें हैं, उम्मीदों को बाँधे हैं। पिचके गाल, तन कमज़ोर, …
किरदार - कविता - पुनेश समदर्शी
असली किरदार को कोई जानता नहीं, नकली किरदार के चर्चे बड़े हैं। सच्चे ग़रीब की कोई मानता नहीं, झूठे अमीर के साथ खड़े हैं। नसीब नहीं दो रो…
ऊँची हवेली - कविता - नीरज सिंह कर्दम
फटे हुए कपड़ों में पैरों में चोट लगी है ठंड से ठिठुरता हुआ आँखों में आँसू लिए भूख से आंते सिकोड़ता हुआ उस ऊँची हवेली को निहारता हुआ एक…
भैया मैं भी पढ़ना चाहता हूँ - कविता - दीपक परमार "कलाकार"
भैया मैं भी पढ़ना चाहता हूँ, देश तो आगे बढ गया मैं भी बढ़ना चाहता हूँ। हमारे घर वाले हमें सुबह ही घर से बाहर भेज देते हैं, कबाड़ उठाओ …
मैं गरीब हूँ - कविता - दिलीप कुमार शॉ
मैं ग़रीबी में हूँ इसलिए समाज का नाक हूँ। मैं दुःख में हूँ इसलिए दर्दो को बाटता हूँ। मैं जागता हूँ तो दो जून की रोटी पाता हूँ मैं संघ…
मिटे भूख जब दीन का - दोहा छंद - डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
जीवन है फुटपाथ पर, यहाँ वहाँ तकदीर। भूख वसन में भटकता, नीर नैन तस्वीर।।१।। भूख मरोड़े पेट को, हाथ ख़ोजते काम। दाता के नारों तले, शुष्क…
रोटी, कपड़ा और मकान - कविता - रीमा सिन्हा
मख़मली पर्दों के पीछे भी एक और जहान है, रो रहे हैं सब वहाँ, न रोटी कपड़ा और मकान है। रूधिर जिनके सूख गये, पीते हलाहल हर रोज़ हैं, शर क्या…
ग़रीबी और लाचारी - कविता - अन्जनी अग्रवाल "ओजस्वी"
हाय ये कैसी, ग़रीबी व लाचारी। बना रही उसके जीवन को दुधारी।। क्या अजब, होती है ये ग़रीबी। न बढ़ाता कोई रिश्ता क़रीबी।। ग़रीबी की नही कोई…
ग़रीबी - कविता - मधुस्मिता सेनापति
ग़रीबी में पैदा हुए, क्या ग़रीबी में ही मर मिटेंगे। कितने ख्वाब लेकर आए थे हम इस जहान में, क्या इस अधूरेपन में ही दम हम तोड़ेंगे...!! जह…
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