संदेश
आ कर तो देखो - गीत - प्रमोद कुमार
सृजन के प्रेमगीत गाकर तो देखो, कभी गाँव मेरे आ कर तो देखो। धरती को चुनर धानी सरसों ओढ़ाए, सूरज की लाली जैसे बिंदिया सजाए, उन्नत हो वक्…
इस शहर में - कविता - मयंक द्विवेदी
धूप तो है मगर छाँव नहीं है इस शहर में कोई गाँव नहीं है चलते तो है सब मगर ढाँव नहीं है इस शहर में कोई गाँव नहीं है। ढलती है शाम मगर रात…
फ़ुर्सत से - कविता - मयंक द्विवेदी
फ़ुर्सत से शहर तुम भी आना गाँव पर जब भी आओ आना नंगे पाँव देखों तो सफ़र इन पगडंडियो का इस दो जून की जद्दोजहद का इस धूप में कडी मशक्कत का…
मेरा गाँव - गीत - सुषमा दीक्षित शुक्ला
मेरे गाँव की सोधीं मिट्टी, अम्मा की भेजी चिट्ठी। स्कूल से हो जब छुट्टी, वो बात-बात पर खुट्टी। हर बात याद क्यूँ आती? ना भूली मुझसे जाती…
गाँव - कविता - संजय राजभर 'समित'
शाम होते ही अँधेरा छा जाता था कच्ची सड़कें बरसात में चलना मुश्किल होता था रात में उमस और मच्छर खाने के लाले फटे पुराने कपड़े रिसता छप्…
गाँव का विद्यालय - कविता - विनय विश्वा
निगाहें देखती है गाँव की ओर हाँ वहीं गाँव जहाँ प्रेम की नाव चलती है जिस नाव के खेवनहार किसान, मज़दूर, गँवार हैं जो अपने लाल को ढाल बनान…
गाँव की छाँव - कविता - राजेश राजभर
अब नहीं रहना चाहता, कोई गाँव में, आम, नीम, पीपल, महुआ की छाँव में। क्या यही यथार्थ है! हमारे गाँव का! शहर जा रहा, हर आदमी तनाव में। अब…
गाँव का दर्द - कविता - संजय राजभर 'समित'
बचपन गाँव में जवानी शहर में एक बैल की तरह फिर बुढ़ापे ने कहा चल गाँव में, गाँव से पूछा– "तू पहले ही जैसा है कुछ भी नहीं बदला"…
आओ चलें गाँव की ओर - कविता - प्रिती दूबे
छोड़ के इन शहरों की शोर, आओ चले गाँव की ओर। कितना प्यारा अपना गाँव, कितना न्यारा अपना गाँव। जहाँ अपनापन है रचा, बसा, जहाँ कभी रोया कभी…
अब हम शहर में हैं - कविता - रमाकान्त चौधरी
होते थे सौ मन गेंहूँ सौ मन धान तमाम दलहन तिलहन बड़ा सुकून था गाँव में। गाँव का बड़ा खेत बेचकर एक छोटा प्लॉट ख़रीदा शहर में अब हम शहर म…
आओ! शहरों में गाँव ढूँढ़ते हैं - कविता - डॉ॰ नेत्रपाल मलिक
आरूढ़ वांछा के रथ पर कंक्रीट के भीड़ भरे पथ पर हो विह्वल आतप से, छाँव ढूँढ़ते हैं आओ! शहरों में गाँव ढूँढ़ते हैं। अय्यारी के चक्रवात से चत…
गाँव - कविता - संजय राजभर 'समित'
शहर में रहते हुए बीत गए पंद्रह साल हर वक़्त तनाव लेनदारी में देनदारी में पर सुकून कहाँ? दोनों बाँह फैलाए आया था शहर पूरी आत्मविश्व…
मुहब्बत है गाँव में - कविता - जितेन्द्र शर्मा
माना कि थोड़ी सी ग़ुरबत है गाँव में, शर्म है, रोटी है, मुहब्बत है गाँव में। गाय है, गोबर है, चूल्हा है खाट है, दादा का दुलार और पापा की …
गाँव का बचपन - कविता - अखिलेश श्रीवास्तव
गाँव में बीते बचपन का मुझे दृश्य दिखाई देता है, अपने गाँव का वो प्यारा मुझे स्वप्न दिखाई देता है। काँव-काँव कौओं की हमको सुबह सुनाई द…
ग्रामीण परिवेश - कविता - सृष्टि देशमुख
ग्रामीण परिवेश है विशेष... यहाँ चलती हैं शुद्ध ठंडी हवा, जो छू जाती हैं इस तन को। यहाँ खुला हैं आसमाँ, उड़ते दिखते हैं रंग बिरंगी पंछी…
गाँव - गीत - पंकज कुमार 'वसंत'
जब-जब गाँव गया मैं अपने, हुई सभाएँ यादों की। कुछ पंचायत गली-गल्प की, कुछ पंचायत वादों की। (गाँव गली) कंकड-पत्थर ने पैरों पर, साँझ-सवेर…
गँवईयत अच्छी लगी - कविता - सिद्धार्थ गोरखपुरी
माँ को न शहर अच्छा लगा न न शहर की शहरियत अच्छी लगी, वो लौट आई गाँव वाले बेटे के पास के उसे गाँव की गँवईयत अच्छी लगी। ममता भी माँ से थो…
चिरैया - कविता - सिद्धार्थ गोरखपुरी
कोयल भी शहर की हो ली अब गाँव में बोले न बोली पर पेड़ नहीं शहरों में क्या ले ली है कोई खोली। अब गाँव में कम हैं गवैया आँगन में नहीं गौरै…
गाँव की औरतें - कविता - यश वट
गाँव की औरतें नहीं लगाती सनस्क्रीन, वे पायल, बाली, काँटा, नथनी, बिंदी, क्लिनिक प्लस और थोड़ा सा पाउडर लगा, लड़ लेती है धूप से यूँ ही, …
बचपन और गाँव - कविता - विजय कृष्ण
बचपन में गाँव हमेशा दस किलोमीटर दूर लगता था, न कम न ज़्यादा। एक तो बुद्धि दस वर्ष से ज़्यादा न थी और दूसरे दस का नोट बहुत बड़ा लगता था। …
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