संदेश
इस शहर में - कविता - मयंक द्विवेदी
धूप तो है मगर छाँव नहीं है इस शहर में कोई गाँव नहीं है चलते तो है सब मगर ढाँव नहीं है इस शहर में कोई गाँव नहीं है। ढलती है शाम मगर रात…
इमारतें - कविता - ऊर्मि शर्मा
शहर की ऊँची इमारतें ख़ून पसीना पिए खड़ी है इसी गाँव के ग़रीब मज़दूर का पल में घुड़क दिया फुटपाथ से उसे उखाड़ आशियाना चार-हाथ का उ…
आओ चलें गाँव की ओर - कविता - प्रिती दूबे
छोड़ के इन शहरों की शोर, आओ चले गाँव की ओर। कितना प्यारा अपना गाँव, कितना न्यारा अपना गाँव। जहाँ अपनापन है रचा, बसा, जहाँ कभी रोया कभी…
अब हम शहर में हैं - कविता - रमाकान्त चौधरी
होते थे सौ मन गेंहूँ सौ मन धान तमाम दलहन तिलहन बड़ा सुकून था गाँव में। गाँव का बड़ा खेत बेचकर एक छोटा प्लॉट ख़रीदा शहर में अब हम शहर म…
आओ! शहरों में गाँव ढूँढ़ते हैं - कविता - डॉ॰ नेत्रपाल मलिक
आरूढ़ वांछा के रथ पर कंक्रीट के भीड़ भरे पथ पर हो विह्वल आतप से, छाँव ढूँढ़ते हैं आओ! शहरों में गाँव ढूँढ़ते हैं। अय्यारी के चक्रवात से चत…
गँवईयत अच्छी लगी - कविता - सिद्धार्थ गोरखपुरी
माँ को न शहर अच्छा लगा न न शहर की शहरियत अच्छी लगी, वो लौट आई गाँव वाले बेटे के पास के उसे गाँव की गँवईयत अच्छी लगी। ममता भी माँ से थो…
चिरैया - कविता - सिद्धार्थ गोरखपुरी
कोयल भी शहर की हो ली अब गाँव में बोले न बोली पर पेड़ नहीं शहरों में क्या ले ली है कोई खोली। अब गाँव में कम हैं गवैया आँगन में नहीं गौरै…
इक लगन तिरे शहर में जाने की लगी हुई थी - ग़ज़ल - अमित राज श्रीवास्तव "अर्श"
अरकान : फ़ाइलुन फ़अल फ़ाइलुन फ़ाईलुन मुफ़ाइलुन फ़ा तक़ती : 212 12 212 222 1212 2 इक लगन तिरे शहर में जाने की लगी हुई थी। आज जा के देखा मुहब…
मैं शहरी हो गया - कविता - संजय राजभर "समित"
जब कोई परदेशी गाँव आता था मिठाई, कपड़े घरेलू रोज़मर्रा की चीज़ें लाता था, जिसके घर आते थे उसके बच्चों में खुशियों की लहर दौड़ उठती थ…
तेरे शहर में हूँ - कविता - अंकुर सिंह
जब-जब तुम्हारे शहर में होता हूँ, तुम्हारी याद आ ही जाती है। भले चंद घंटे रही मुलाक़ात हमारी, फिर भी तुम्हारी याद आ जाती है।। पता हैं मु…
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