संदेश
मन मर गया हो जैसे - कविता - शालिनी तिवारी
एक लड़की जो चहचहाती थी चिड़ियों-सी, अजीब-सी ख़ामोशी ओढ़े है। जिसे ज़िद थी भरी जवानी में बचपना जीने की, उसका बचपना एक ही ज़िंदगी में दो …
तुम - कविता - बापन दास
तुम चंदन का मानो वृक्ष हो, मैं उससे लिपटा नाग कोई! मैं काँपता तार सितार-सा हूँ, तुम उससे झरती राग कोई! तुम चंचल नैना मृग-सी हो, मैं कल…
समझाइश - बघेली लघुकथा - ईशांत त्रिपाठी
मौसी केर बियाह के उराओ म परदेस म पढ़त दीनू चार रोज़ पाछेन आइगा। चार रोज़ आगे बियाह होय का हबै पर दीनू का रौनक नहीं देखान। ओसे रहा नहीं ग…
चल! इम्तहान देते हैं - कविता - आलोक कौशिक
भय को भगाकर पंखों को फैला कर हौसलों को उड़ान देते हैं चल! इम्तहान देते हैं तू नारी है या है नर दिखा अपना हुनर श्रेष्ठ को सम्मान देते ह…
क्या ज़िंदगी थी - कविता - सिद्धार्थ गोरखपुरी
कुछ ज़मीं, कुछ आसमाँ कुछ मुस्कुराहटें और कुछ सामाँ कुछेक सिक्के, कुछ घूँट आब क्या ज़िंदगी थी जनाब। ख़ुशियों की... दस्तक की दरकार नासमझ-स…
एहसास - कविता - डॉ॰ कुमार विनोद
एक बूढ़ी स्त्री ने जब अपनी दवा की पर्ची के साथ अपने बेटे के तरफ़ एक मुड़ा-तुड़ा नोट भी बढ़ाया तो अहसास हुआ कि ये दुनिया वाक़ई बीमार है...! …
बुढ़ापा - कविता - राजेश राजभर
तितर-बितर भई डाली-डाली, झर गई सगरो पाती, चौथेपन की राह कठिन है– कौन जलाए साँझ की बाती। आँखों में सैलाब उमड़ता चढ़ता क़दम-क़दम अँधियारा– …
निराशा - कविता - सुरेन्द्र जिन्सी
निराशा के लिए एक शब्दकोश है, उसकी ध्वनियाँ नुकीली हैं, उसकी लय असंगत है। और फिर भी, उसके कोलाहल में भी, मुझे सांत्वना का आभास मिलता है…
जातियों में बँटा हुआ देश - कविता - सूर्य प्रकाश शर्मा 'सूर्या'
जातियों में बँटा हुआ देश गठ्ठर से अलग हुई उन लकड़ियों जैसा है जिन्हें कोई भी चाहे तब तोड़ सकता है बिना किसी परेशानी के। लेकिन हरेक लकड…
वसंत ऋतू - कविता - सुनीता प्रशांत
हुई है कुछ आहट-सी रुन झुन करती आई हवा जागी है कोई उमंग-सी गगन भी है मुसकाया पीत वसन धरे धरा ने कलियों से शृंगार किया भ्रमर, पपिहा लगे …
ये ज़माना - कविता - चक्रवर्ती आयुष श्रीवास्तव
क्या कहूँ इस ज़माने को मैं, हर तरफ़ एक नया अफ़साना है, कभी सच्चाई के नक़ाब में, कभी झूठ का तराना है। दिल की बात कहने से भी अब, लोग कतराने …
मुझे कुछ कहना है - कविता - सुशील शर्मा | एक प्रेम कविता
सुनो तुमसे एक बात कहना है मुझे यह नहीं कहना कि तुम बहुत सुंदर हो और मुझे तुमसे प्यार है। मुझे प्यार का इज़हार भी नहीं करना मुझे कहना है…
प्रेम कोई व्यापार नहीं है - गीत - डॉ॰ राम कुमार झा 'निकुंज'
प्रेम कोई व्यापार नहीं है, अन्तर्मन का भावामृत है। निर्मल शीतल गूंजित हियतल, आँखों में भाव सृजित है। तन मन धन अर्पण जीवन पल, नव वसन्त …
आकर्षण पर प्रेम की कविता - कविता - सुरेन्द्र प्रजापति
उसे आकर्षित करने के लिए मैंने एक शब्द लिखा 'मुक्ति' उसने अस्वीकार कर दिया दूसरा शब्द लिखा 'विश्वास' उसकी आँखे करुणा से…
शायद तुम नहीं मानोगे - कविता - लक्ष्मी सगर
शायद तुम नहीं मानोगे। अगर मैं कहूँ तुम्हारी साँसें जैसे हवा में घुलती कोई इत्र की ख़ुशबू जिनमें मैं गुम हो जाना चाहती हूँ॥ और तुम्हारी …
यूँ आजकल जिनकी बातों में - नज़्म - सुनील खेड़ीवाल 'सुराज'
यूँ आजकल जिनकी बातों में, आप आए बैठे हैं जो तुम्हें, अपनी हर एक बात पर लुभाए बैठे हैं पछताना न पड़े, जान लो वक्त रहते तुम भी उन्हें यक़…
हामर पेटेक आइगीं - खोरठा कविता - विनय तिवारी
हामर पेटेक आइगीं पोइड़ के बानी-छाय होय जाय हामर हिंछा, हामर बुधि हामर उलगुलान, हामर सोच हामर पेट आर माड़-भात। एकर बिचें हाड़तोड़वा काम ज…
घायल सिंह दहाड़ उठो - कविता - दिवाकर शर्मा 'ओम'
अपनी मर्यादा में रहकर, शोषण के घूटों को सहकर प्रश्नों का प्रतुत्तर देने, अपने हक़ को वापस लेने, चिंगारी को ज्वाल बनाकर, ख़ुद को कुंदन सा…
न हो आशाएँ, जहाँ न हो विश्वास - कविता - राजेन्द्र कुमार मंडल
न हो आशाएँ, जहाँ न हो विश्वास, न उन्माद जीवन में फिर क्या आभास? ध्येय अगर जीवन की हो मोक्ष प्राप्ति की, हे प्राणी कर्मगुणी, त्याग मोह …
टूटने का दर्द - कविता - प्रवीन 'पथिक'
हृदय और मस्तिष्क में, दीर्घ काल से चल रहा अन्तर्द्वंद आदमी के विचार को शून्य और शिथिल कर देता है। आदमी का दर्द– और उसके भीतर उठने वाला…
अशोक और ओपेनहाइमर - कविता - प्रतीक झा 'ओप्पी'
कौन कहता है अशोक पुरातन हज़ारों वर्षों का वह वासी? मैंने देखा उसे खड़ा हुआ रेगिस्तान में 20वीं सदी का साथी। जिसके आदेश पर तपते मरुस्थल …
मिट्टी के नीचे - कहानी - बापन दास
गहरी रात। खाट पर लेटे इधर-उधर कर रहा था। अचानक मानो फ़र्श से उठ आई वह आवाज़। एक मंद स्वर! सीटी की आवाज़, मानो कोई मिट्टी के नीचे से लगा…
भूलना - कविता - संजय राजभर 'समित'
उम्र के हिसाब से आदमी भूलने लगता है ज़रूरी भी है यह एक दवा है जीवन के अंतिम पड़ाव पर कुछ सुकून मिले क्योंकि इंसान फिर न लौट आने के पथ प…
वो अपने जो भेदी बन लंका ढहाते हैं - कविता - सीमा शर्मा 'तमन्ना'
अपने ही घर के भेदी अक्सर वो जो बन जाते हैं, वही अन्ततः उस सोने की लंका को एक दिन ढहाते हैं। भूल जाते बातों को जिनका फ़ायदा दूसरे उठाते …
वासंती उल्लास - कविता - मयंक द्विवेदी
बीत गए दिन पतझड के कलियों तुम शृंगार करो मधुर मधु-सरिता छलका मधुकर पर उपकार करो नील गगन के नील नयन से शबनम की बौछार करो हरित कनक की लड…
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