संदेश
मानव युग - कविता - सूर्य प्रकाश शर्मा 'सूर्या'
हे इन्द्र! सँभालो सिंहासन, सिंहासन जाने वाला है। पहुँचा है मानव अंतरिक्ष अब स्वर्ग पहुँचने वाला है॥ अपनी सेना तैयार करो जितना हो ज़ो…
ज़िंदगी एक क्रिकेट - कविता - पारो शैवलिनी
ज़िंदगी के पिच पर भावनाओं का छक्का मारा था मैंने सोचा था– जीत लूँगा मंज़िल रूपी मैच को मगर, दूर खड़े आवश्यकताओ के सिली प्वाइंट पर खड़े ए…
बचपन - कविता - दिलीप कुमार चौहान 'बाग़ी'
माँ के तन से जन्म लिया पिता से मुझे नाम मिला, आँचल के कवच के अंदर माँ का स्तन पान किया। माँ की अँगुलियों का मिला सहारा पिता के कंधों प…
तुम मानव नहीं हो - कविता - आलोक कौशिक
देख कर दूजे का हर्ष गर तुम्हें होता है कर्ष लगाए रहते मुखौटे सह ना सकते उत्कर्ष तो मान लो तुम मानव नहीं हो! देकर ग़ैरों को दुःख यदि तु…
मोह - कविता - सुनीता प्रशांत
कुछ तो खटका हुआ है इक आँसू अटका हुआ है ये मन व्यथित हुआ है कुछ तो घटित हुआ है रिश्तों की डोरी थी कभी छोटी कभी बड़ी थी काफ़ी बल खाई थी उ…
आकुलता - गीत - सुशील कुमार
सघन गहन सम प्रेम भुवन में अगणित बार जताए तुम आशाओं का मेरा सूरज डुबता देख न पाए तुम अक्षत अक्षत मेरे सपने रंग प्यार का हल्दी में शहनाई…
अधूरी तस्वीर - गीत - डॉ॰ राम कुमार झा 'निकुंज'
भौतिक विलास अभिलाष हृदय जीवन सौग़ात समझता है। भागमभागी पल पल अविरत अधूरी तस्वीर सुहाती है। यथार्थ विरत चरितार्थ समय मृगतृष्णा में खो ज…
खँडहर-सा घर - कविता - निवेदिता
ख़ाली सा शहर, जिसमें एक खँडहर-सा घर। दरारों का जाल, आधी पूरी सी दीवार। टूटी-सी खिड़की पर तकती नज़र झाँकती सुनी राहों को हर पहर। हवा के ह…
वह आलिंगन चौबीस साल पुरानी है - कविता - सुरेन्द्र प्रजापति
कुछ गीली और चमकीली यादों में, तुम मेरी स्वप्न सुंदरी, मेरे सुनहले अतीत की नीली किरणें, वह उम्मीद से भरी आँखें, चाहना से भरी मटकती पुतल…
हरियाली कविताएँ - कविता - कर्मवीर 'बुडाना'
सागर की लहरों को उतरता देख यूँ लगता हैं जैसे कोई टूटा पंख हवा के झूले से लिपटकर कवि के हाथों को छूना चाहता हो, एक माली की तरह मैं इस ल…
इस जीवन के हर पृष्ठ पर - नवगीत - सुशील शर्मा
इस जीवन के हर पृष्ठ पर लिखे हुए उर के स्पंदन। तेरे अधरों की वँशी पर मेरे गान की लय होती हर पल हर क्षण तड़प वेदना भय बोती सकल आस के बंध…
अनकहे शब्द - कविता - सुरेन्द्र जिन्सी
यह सच है, ज़िंदगी तेज़ी से आगे बढ़ती है, लेकिन इतनी तेज़ी से नहीं कि मैं इसकी दौड़ में ख़ुद को खो दूँ। अगर मेरी क़लम मुझे पुकारती है, तो मु…
चलो दोस्ती कर लें - कविता - निर्मल कुमार गुप्ता
चलो दोस्ती कर लें। द्बेष-भाव में,क्या रक्खा है? क्यूँ न, गुफ़्तुगू कर लें। चंद दिन की, ज़िंदगी में, फिर से कुछ, मस्ती कर लें। नफ़रत में…
कहाँ जाना है? - कविता - संजय राजभर 'समित'
अब मुझे अच्छा लगता है अकेलेपन से। मेरे साथी हैं टूटी-फूटी छप्पर बढ़े बाल-दाढ़ी मटमैले कपड़े रूखी-सूखी रोटियाॅं और अपनी कल्पनाएँ, चिंतन…
शिव विवाह शिवरात्रि में - दोहा छंद - डॉ॰ राम कुमार झा 'निकुंज' | महाशिवरात्रि पर दोहे
महशिवरात्रि पर्व शुभ, पावन फागुन मास। गौरी शिव परिणय दिवस, धर्म सनातन ख़ास॥ मिले शान्ति सुख सम्पदा, मिटे विघ्न दुख ताप। पूजें श्रद्धा भ…
नसीब अपना जला चुके हैं - ग़ज़ल - चक्रवर्ती आयुष श्रीवास्तव
नसीब अपना जला चुके हैं, चराग़ कोई बुझा न पाए ग़मों का साया जो पड़ चुका है, वो अब कभी भी हटा न पाए उदास आँखों में रौशनी थी, मगर वो कब स…
व्यथा - कविता - अलका ओझा
मन की भी अपनी व्यथा है कभी ख़ुशियों में ख़ुश नहीं होता कभी ग़म में दुःखी होने से मना करता है पर मन दुःख में व्यथित रहता है बिना आँसू बहा…
बेटी - कविता - रामदयाल बैरवा
घूँघट नहीं, किताब थमा दो, नन्ही परी को पंख लगा दो, तोड़ दो ये झूठे बंधन, जो नारी को कहते अमंगल, जन्म से पहले प्राण गए, समाज बना हैं क्…
मजबूर-सी औरत - कविता - दिलीप कुमार चौहान 'बाग़ी'
पीठ पर बाँधकर दुपट्टे से सुला रही थी अपने दुधमुँहे बच्चे को अपने नर्म हाथों से थपथपाकर मानों धरती को जगा रही थी। मिट्टी को पसीने से सा…
जो जगमग मेरी दुनिया दिख रही है - ग़ज़ल - समीर द्विवेदी नितान्त
जो जगमग मेरी दुनिया दिख रही है तुम्हारे नूर की ही रौशनी है भला दिखने की ये जद्दोजहद क्यों भलाई या बुराई कब छिपी है जो बदले पैंतरा हर इ…
समर अभी रुका कहाँ - कविता - मयंक द्विवेदी
ये मंद-मंद जो द्वन्द्व है जो मन के मन में चल रहा समर अभी रुका कहाँ समर अभी रुका कहाँ भीतर झंझावतों का शोर है बाहर चुप्पियाँ है साध के …
वो भावनाओं का समन्दर - कविता - सीमा शर्मा 'तमन्ना'
कभी-कभी बहुत मुश्किल होता है, वह सब कुछ कह पाना, जो इस मन के भीतर रहकर अनायास ही शोर मचाता है। होता है कभी बहुत व्याकुल और कभी-कभी होक…
खो रही दिशाएँ - कविता - प्रवीन 'पथिक'
खो रही है गौरैया, काल के धुँध में। सूख रहे हैं पौधें, जल के अभाव में। मर रही हैं मछलियाॅं, दूषित हुए तालाब से। भयाकुल हैं आम जन, दूसरो…
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